eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 45

आन्ोलनकारी समाज सुधारक
हैं । हम यहां विचार करेंगे कि डॉ . अमबेडकर का समाज सुधारक के रूप में मौलिक ्वरूप कैसा है ? हम जानते हैं कि विगत दो हजार वषषों की वया्क राजनीतिक एवं सामाजिक उथिल-पुथिल ने कुछ विचित्र परिस्थितियां खड़ी कीं और समाज में अनेक प्रकार के विभेद उत्न्न हो गये थिे । इस दृष्टि से वया्क समाज सुधारों की आव्यकता थिी । इस आव्यकता के अनुरूप ही डॉ . आंबेडकर एक समाज सुधारक थिे तथिा युगानुककूल सामाजिक वयवस्थाओं की पुनर्स्थापना के वे पुरोधा थिे । सदियों से वंचित , उपेसक्त अपमानित एवं तिरस्कृत जातियों को उनहोंने आशा और सव्वास के साथि एक मजबपूत संबल प्रदान किया , जो असहाय और असंगठित थिे उनहें एक मजबपूत आधार और मंच दिया , भय और प्रताड़ना के कारण जिनकी वाणी ' मपूक ' हो गई थिी उनहें सश्त वाणी दी । साथि ही , अनयाय और अतयाचार के विरुद एकजुट होकर संघर्ष करने की क्मता भी उनहें प्रदान की । यह बात हमारे ्मरण में सदैव रहनी चाहिए कि वे जिस वयवस्था के विरुद लड़ रहे थिे वह सदियों की रूढ़ परम्राओं के कारण दृढ़ हो गई थिी और कहीं-कहीं तो उसने तथिाकसथित शा्त्रों और धर्म की विककृत धारणाओं से सहारा लेने की कोशिश भी की थिी । इस कारण , इन कुरीतियों , रूढ़ियों तथिा मिथया मानयताओं की जड़ें गहरी थिी तथिा ये दीवारें बहुत मजबपूत थिीं । इनसे संघर्ष लेना और उनको ढहाना आसान न थिा । डॉ आंबेडकर ऐसे दृढ़ प्रसतज् वयक्त थिे जिनहोंने अपने बालयकाल से लेकर संविधान प्रारूप समिति के अधयक् पद तक इन भेदभावों को ्वयं झेला । अपमान और तिर्कार की पीड़ा ने अनेक बार उनके हृदय के अनतरतम को झकझोर कर रख दिया थिा । अपने करोड़ों बनधुओं के दु : ख को देखकर वे दृढ़ होते चले गये । ' अपना यह जीवन इनहीं पीसड़त मानवजनों के दु : खों को दपूर करने में ही लगा दपूंगा " यह संकल् दिन प्रतिदिन और अधिक मजबपूत होता चला गया । भौतिक सुखों की चाह , उच् पद प्रापत करने की महतवाकांक्ा , वयक्तगत प्रसतष््ा , परिवार आदि का मोह भी उनहें इस मार्ग से कभी विचलित न कर सका । इसी कारण जब आव्यकता ्ड़ी
तब वे केनद्रीय मंत्री का प्रतिष्ठित पद छोड़कर नेहरू जी के मंत्रिमंडल से बाहर आ गये । हैदराबाद के निजाम तथिा वैटिकन सिटी के पोप द्ारा अककूत सम्सत् का निवेदन भी उनहें उनके मार्ग से भ्रमित न कर सका और वे निरनतर अपने सुनिश्चत मार्ग पर चलते रहे जिसके द्ारा करोड़ों अस्ृ्य बनधुओं को सममासनत जीवन प्रापत करवा सकें ।

आन्ोलनकारी समाज सुधारक

डॉ आंबेडकर के जीवन में एक महत्वपूर्ण बात हमको दिखलाई देती है वह यह है कि वे पुरानी सभी मानयताओं , आदशषों और वयवस्थाओं
को धव्त करना नहीं चाहते तथिा किसी जाति या वर्ण के वे शत्रु नहीं हैं , जो अचछा है वह संभालकर रखना और जो अनाव्यक है उसे हटाना ही उनहें अभीष्ट है । इस दृष्टि से वे एक ' आनदोलनकारी ' हैं । डॉ . आंबेडकर यह जानते थिे कि भारतीय दर्शन के मौलिक ततव बहुत उदात् हैं । किनतु , विककृसतयों , रूढ़ियों , ढोंग , पाखणड , कर्मकाणडों एवं परंपराओं का अनाव्यक अतिरेक , जिसने उस सम्त दर्शन जो सभी मनुष्यों को समान मानता है तथिा करुणा , प्रेम , ममता , बनधुतव , दया , क्मा , श्रदा आदि सदगुरों का सनदेश देता है एवं उसका
संरक्र भी करता है , को ढंक लिया है , वही हमारे परिवर्तन का मपूलाधार बना रहे । सुधारवादी आनदोलन को चलाते समय हर क्र यह बात ्मरण रखनी होगी कि यदि किसी भी कारण से आपसी प्रेम , ममता और बनधुतव का भाव समापत हो गया तो परिवर्तन का यह संघर्ष एक क्रूर वैमन्य में बदलकर अधिकतम अधिकारों को पाने की इचछा रखने वाले गृहयुद में बदल जायेगा । अत : वे कहते थिे कि हम यह बात धयान में रखें कि हमारे देश में सभी सदगुरों का दाता , ' धर्म ' है । इस ' धर्म ' को अपने विशुद रूप में पुनर्स्थापित करना है । ढोंग , पाखणड , भेदभाव , कर्मकाणड आदि के परे ' धर्म ' में अनतसनसह्णत महान सदगुरों को संरसक्त करते हुए हमें आगे बढ़ना है । कुछ लोग कहते हैं कि धर्म की मानव जीवन में कोई आव्यकता नहीं है ।
डॉ . आंबेडकर लोगों के इस मत से सहमत नहीं थिे । उनहोंने कहा- ' कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म समाज के लिए अनिवार्य नहीं है , मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता । मैं धर्म की नींव को समाज के जीवन तथिा वयवहार के लिए अनिवार्य मानता हपूं ।' मा्स्णवादी लोग धर्म को अफीम कहकर उसका तिर्कार करते हैं । धर्म के प्रति यह विचार मा्स्णवादी दृष्टिकोण की आधारशिला है । डॉ आंबेडकर मा्स्णवादियों के इस मत से सहमत नहीं थिे । वे इस बात से ्पूरी तरह आ्व्त थिे कि ' धर्म ' मनुष्य को न केवल एक अचछा चरित्र विकसित करने में सहायता करता है अपितु वह समाज के संरचनातमक पक्ों को भी निर्धारित करता है । चरित्र एवं शिक्ा को वे धर्म का ही अंग मानते थिे । वे कहते थिे ' धर्म ' के प्रति नवयुवकों को उदासीन देखकर मुझे दु : ख होता है ।' डॉ . साहब का मानना थिा कि ' धर्म ' कोई पंथि या कर्मकाणड नहीं है । धर्म के नाम पर हो रहे निरथि्णक ढोंग , पाखणड तथिा व्यर्थाडमबरों को वे धर्म नहीं मानते । धर्म से उनका तात्य्ण है- वयक्तगत , पारिवारिक एवं सामाजिक वयवस्थाओं को आदर्श रूप से संचालित करने वाला ' नैतिक दर्शन ', जो सभी के लिए श्रेय्कर है वही ' धर्म ' है ।
( पुस्तक ' आंबेडकर चिं्तन का धरा्तल : सम्यक दृष्ट ' से साभार ) vizSy 2021 Qd » f ° f AfaQû » f ³ f ´ fdÂfIYf 45