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डा . आंबेडकर और सामाजिक न्ाय ns
श की राजनीति में बाबा साहब आंबेडकर को प्ाय : सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते हुए उनहें अपना बताने की कोशिश कर रही हैं । कांग्ेस का दावा है कि डा . आंबेडकर उसके जयादा करीब थे और कांग्ेस ने उनके विचारों के अनुरूप काम करने की जयादा कोशिश की है । कांग्ेस पूरी कोशिश कर रही है कि किसी समय उसकी सबसे बडी ताकत रहे दलित वोट को फिर हासिल किया जाए , जिससे वह सत्ा हासिल कर सके I इसी तरह अनय राजनीतिक दल भी डा . आंबेडकर की आड़ में अपना हित साधने की कोशिश कर रही हैं । देखा जाए तो चुनाव आधारित लोकतांतरिक वयवसथा ने डा . भीमराव आंबेडकर को अधिकाधिक प्ासंगिक बनाया है । देश की कुल जनसंखया का चौथाई हिससे से अधिक वोट डा . आंबेडकर के नाम के साथ जुड़ा हुआ है । दलित वोटों की गोलबंदी जितनी मजबूत हो रही है , डा . आंबेडकर से राजनीतिक दलों का मोह उतना ही बढ़ता जा रहा है । खेद का विषय यह भी है कि डा . आंबेडकर के माधयम से दलित वोटों पर कबजा करने की इच्ा सबमें दिखाई देती है , परनिु उनकी वासितवक विरासत और विचारों को समझने और उसे आगे ले जाने का संकलप कहीं नहीं दिखाई देता ।
डा . आंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे जयादा विचारवान और विद्ान राजनेताओं में से हैं । पिछले सात दशक से अधिक समय में जिन नायकों ने देश को बदलने में सबसे अहम भूमिका निभाई है , उनमें डा . आंबेडकर अग्िणय रहे हैं । उनहोंने संविधान के माधयम से एक मूक कांति की नींव रखी । यह कांति थी सदियों से चली आ रही दलितों के उपेक्ा , शोषण और उनकी वंचना के इतिहास को राजनीतिक प्तिनिधितव के माधयम से बदलने की । डा . आंबेडकर केवल दलितों के ही नेता नहीं थे , वरन् वह एक सवप्नद्रषटा राषट्र निर्माता भी थे । उनके राषट्र निर्माण की प्तकया मुखयधारा के नेताओं से भिन्न थी ।
डा . आंबेडकर सामाजिक नयाय के पक्धर थे । वह जिस सामाजिक नयाय की अवधारणा का प्तिपादन करते है , वह नसल भेद , लिंग भेद और क्ेरिीयता के भेद से मुकि है । संविधान निर्माण में उनके इस सिदांि की भूमिका सपषट देखी जा सकती है । डा . आंबेडकर एक ओर दलितों की मुककि और सामाजिक समानता चाहते थे , वहीं दूसरी ओर वह यह भी चाहते थे कि भारत एक
मजबूत , शककिशाली एवं महान् राषट्र बने । उनहोंने इन दोनों दिशाओं के कार्य किया I उनहोंने कहा था कि वर्गहीन समाज गढ़ने से पहले समाज को जातिविहीन करना होगा । समाज में सभी मनुषय समान हैं । सभी को समानता के साथ जीने का अधिकार है I इसलिए नयाय और समता के आधार पर भारतीय समाज की पुनर्रचना की जानी चाहिए । सामाजिक नयाय भारतीय संविधान की आधारशिला है । यद्यपि सामाजिक नयाय को संविधान में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है । फिर भी भारतीय संविधान का प्मुख सवर और अनुभूति सामाजिक नयाय ही है । यहां समाज और नयाय के प्ति लचीला रूख अपनाते हुए नयातयक वयवसथा को मुकि रखा गया है ताकि सामाजिक पररकसथतियों , आयोजनों , संस्कृति समय तथा लक्य के अनुरूप इसमें आवशयक परिवर्तन किए जा सकें ।
भारतीय समाज बहुधार्मिक , बहुसांस्कृतिक , बहुभाषिक , बहुजातीय है । यहां सामाजिक नयाय की सथापना एक कठिन चुनौती है । हालांकि भारतीय संविधान सामाजिक नयाय के तकयानवयन के लिए तीनो सिंभों विधायिका , कार्यपालिका , नयायपालिका को सपषट तनददेश देता है परंतु कुछ नीतिगत और वयावहारिक कारणों से इस क्ेरि में हमारा प्दर्शन बेहद लचर रहा है । इसके पीछे एक तरफ राजनीतिक दबाव तो दूसरी ओर संवैधानिक संसथाओं के उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों की उदासीनता प्मुख कारण है ।
प्धानमंरिी नरेंद्र मोदी के दस वर्ष के कार्यकाल में जहां विकास की गति तेजी से बढ़ी है , वहीं संचार के साधन , आवागमन के साधन , शिक्ा का प्सार , रोजगार के अवसर आदि बढ़े हैं I विकास योजनाओं के माधयम से ककृति उतपादन आदि में आशचयमाजनक वृतद हुई है । गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लाखों परिवारों के जीवन में अनुकूल परिवर्तन भी दिखाई देने लगा है I लेकिन सामाजिक नयाय के क्ेरि में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल सके हैं I विडमबना यह भी है कि डा . आंबेडकर को लेकर राजनीति तो की जा रही है , लेकिन उनके विचारों को अपने आचरण में उतारने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती । डा . आंबेडकर को सच्ची श्रदांजलि हर किसम के जातिवाद से देश को मुकि करने की कोशिशों के अलावा तब होगी , जब उनके कहे और लिखे का गंभीरता से अधययन और विशलेिण किया जाएगा , न कि सुविधानुसार महिमामंडन ।
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