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सामाजिक काांति कबे जनक-ज्योतिबा फु लबे

`रतीय सामाजिक रि्ंवत के जनक

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कहे जाने वाले महातम् जयोवतबा
फुले का जनम 11 अप्रैल 1827 को महार्षट्र के सातारा जिले में माली जाति के एक परिवार में हुआ था । वे एक महान विचारक , कार्यकर्ता , समाज सुधारक , लेखक , दार्शिनक , संपादक और रि्ंवतकारी थे । उनहोंने जीवन भर निम्न जाति , महिलाओं और दलितों के उद्धार के लिए कार्य किया । इस कार्य में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी पूरा योगदान दिया । महातम् फुले का बचपन अनेक कव्ठर्इयों में बीता । वे महज 9 माह के थे जब उनकी मां का देहांत हो गया । आर्थिक तंगी के कारण खेतों में पिता का हाथ बंटाने के लिए उनहें छोटी उम्र में ही पढ़्ई छोड़री पड़ी । लेकिन पड़ोवसयों ने उनकी प्रतिभा का पहचाना और उनके कहने पर पिता ने उनहें ्कॉवटश मिशनस हाई स्कूल में दाखिला करा दिया । मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह सावित्रीबाई फुले से हो गया ।
जयोवतबा के जीवन में महतिपूर्ण मोड़ वर्ष 1848 में आया जब वे अपने एक रि्ह्मण मित्र की शादी में वह्स् लेने के लिए गए । शादी में दूलहे के रर्तेदारों ने निम्न जाति का होने के कारण उनका अपमान किया । इसके बाद उनहोंने तय कर लिया कि वे सामाजिक असमानता को उख्ड़ फेंकने की दिशा में कार्य करेंगे ्योंकि जब तक समाज में स्त्रयों और निम्न जाति वालों का उतर्र नहीं होगा जब तक समाज का विकास असंभव है । 1791 में थॉमस पैन की किताब ' राइटस ऑफ मैन ' ने उनहें बहुत प्रभावित किया । समाजोतर्र के अपने मिशन पर कार्य करते हुए जयोवतबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ ' सतयशोधक समाज ' नामक
सं्र् का निर्माण किया । वे ्ियं इसके अधयक् थे और सावित्रीबाई फुले महिला विभाग की प्रमुख । इस सं्र् का मुखय उद्े्य शूद्रों और अति शूद्रों को उच् जातियों के शोषण से मु्त कराना था । इस सं्र् के माधयम से उनहोंने वेदों को ई्िर रचित और पवित्र मानने से इंकार कर दिया । उनका तर्क था कि यदि ई्िर एक है और उसी ने सब मनुषयों को बनाया है तो उसने केवल सं्कृत भाषा में ही वेदों की रचना ्यों की ? उनहोंने इनहें रि्ह्मणों द््रा अपना ्ि्र्थ सिद्ध करने के लिए लिखी गई पु्तकें कहा ।
सतय शोधक समाज की शाखाएं मुमबई और पुणे के गांवों और क्बों में खोली गई । एक दशक के अंदर इस संग्ठर ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक रि्ंवत का संचार कर दिया , जिसके चलते कई लोगों ने शादी और नामकरण के लिए पंडे पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया । ऐसे में इन लोगों को धमकाया गया कि बिना सं्कृत के उनकी प्रार्थना ई्िर तक नहीं पहुंचेगी । तब फुले ने सनदेश दिया कि जब तेलगु , तमिल , कन्नड़ , बांगल् में प्रार्थना ई्िर तक पहुंच सकती है , तो अपनी भाषा में की गई प्रार्थना ्यों नहीं पहुंचेगी । कई मौकों पर फुले ने खुद पुरोहित बन सं्क्र संपन्न करवाए और ऐसी प्रथा चलाई , जिसमें पिछड़ी जाति का वयस्त ही पुरोहित चुना जाने लगा ।
उस समय ऐसा करने की हिममत करने वाले वे पहले समाजश््त्री और मानवतावादी थे । लेकिन इसके बावजूद वे आस्तक बने रहे । उनहोंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया और चतुिनाणटीय जाति वयि्र् को ्ठुकरा दिया । इस सं्र् ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया
और शैक्वणक और धार्मिक नेताओं के रूप में रि्ह्मण वर्ग को ्िीकार करने से इंकार कर दिया । सतयशोधक समाज के आंदोलन में इसके मुखपत्र दीनबंधु प्रकाशन ने भी महतिपूर्ण भूमिका निभाई । कोलह्पुर के शासक शाहू महाराज ने इस सं्र् को भरपूर वित्ीय और नैतिक समर्थन प्रदान किया ।
महातम् फुले ने दलितों पर लगे अछूत के लांछन को धोने और उनहें बराबरी का दर्जा दिलाने के भी प्रयत्न किए । इसी दिशा में उनहोंने दलितों को अपने घर के कुंए को प्रयोग करने की अनुमति दे दी । शूद्रों और महिलाओं में अंधवि्ि्स के कारण उतपन्न हुई आर्थिक और सामाजिक विकलांगता को दूर करने के लिए भी उनहोंने आंदोलन चलाया । उनका मानना था कि यदि आजादी , समानता , मानवता , आर्थिक नय्य , शोषणरहित मूलयों और भाईचारे पर आधारित सामाजिक वयि्र् का निर्माण करना है तो असमान और शोषक समाज को उख्ड़ फेंकना होगा ।
जयोवतबा के कार्य में उनकी पत्नी ने बराबर का योगदान दिया । यद्यपि वे पढ़ी−लिखी नहीं थीं और शादी के बाद जयोवतबा ने ही उनहें पढ़र्− लिखना सिखाया । किनतु इसके बाद उनहोंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । उस समय लड़वकयों की दशा अतयंत शोचनीय थी और उनहें पढ़रे लिखने की अनुमति नहीं थी । इस रीति को तोड़रे के लिए जयोवतबा और सावित्रीबाई ने 1848 में लड़वकयों के लिए एक विद्यालय की ्र्पना
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