दशहरा
बडे ध म
ध म से मन य ज त दीव ली और दशहर ।
इन सब त्योह रों से लग व है हम र बह त गहर ।।
स्र पणख की न क कटी ज न से म रे गए खर – द ष
ण ।
क्रोध से आग बब ल
ह आ र वण, समझ न प य उसे ववभीषण ।।
ब वद्ध ह ई भ्रष्ट, कर बैि सीत जी क हरण ।
न समझ को तो लेलेनी च ठहए थी प्रभ की शरण ।।
अशोक व ठटक मे शमलने आए जब हन म न ।
दे वलोक मे तो तभी होगय थ ये एल न ।।
घमुंडी है , नहीुं छोडेग अपन क्जद्दीपन ।
प्रभ र म के ही ह थों गव एुंग अपन जीवन ।।
ज्ञ नी थ , बलश ली थ , थ वेदों क ज्ञ त ।
अपनी ही क्जद पर अड , समझ बैि ख द को ववध त ।।
ऐसे प पी क तो होन थ यही अुंत,
अवत र बन कर जन्म लेते हैं इसीशलए मह प रुष सुंत ।।
मुंदोदरी ने दी थी उसे सीख अछत उतम ,
नहीुं कोई स ध रण प रुष , ये तो हैं मय शद प रषोतम ।।
नहीुं म न अहुं क री , ववद्ध न होकर भी नहीुं थी ववजडम ।
समझ नहीुं सक लील र म की , छोडी उन्होने जब ककुंगडम ।।
द र ू दशी गर होत तो समझ ज त , टूट थ जब शशव धन ष ।
धरती पर अवतररत हो च के हैं , श्री र म मह प रुष ।।
अहुं क र की भ वन कभी न मन मे ल न ,
सद आदर भ व से प्रभ के आगे शीश झ क न ।।
प्रतीक स्वरूप है इस तरह र वण को जल न ।
असली मकसद तो है , भ वी पीढी क चररत्र छनम शण कर न ।।